धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष
On 05 Aug 2024
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है।
यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है?
यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है?
धर्म
धर्म का अर्थ है कर्तव्य।
श्रीमद भागवत गीता मे मनुष्य का सृष्टि के प्रति, देश के प्रति, समाज के प्रति, परिवार के प्रति, और स्वयं के प्रति जो कर्तव्य है उनको विस्तार से कहा गया है।
मनुष्य जीवन में जो कार्य करता है, वह सभी कार्य स्वयं के लिए न हो कर केवल समाज कल्याण के लिए होने चाहिये। समाज की सेवा करना, समाज कल्याण के लिए कार्य करना, यह ही मनुष्य का कर्तव्य है, धर्म है।
स्वस्थ, सुरक्षित, एवं मात्र जीवन निर्वाह के लिए जो कार्य है, वह मनुष्य के लिए स्वयं के प्रति कर्तव्य है।
साथ ही मनुष्य का कर्तव्य है कि धर्म का पालन करने के लिए जो ज्ञान, शिक्षा एवं कोशल चाहिए उसको अर्जित करना।
अतः धर्म के पालन के लिए कार्य करना प्रथम पुरुषार्थ है।
धर्म किसी प्रकार की पूजा पद्धति नहीं है और न ही यह किसी आस्था का विषय है।
धर्म एक प्रत्यक्ष प्रामाणिक सिद्धांत है। अतः धर्म पूर्ण रूप से विज्ञान का विषय है।
धर्म सिद्धांत की प्रमाणिकता, सत्यता सनातन समय से सिद्ध है। इसलिए इसको सनातन धर्म कहा गया है।
अर्थ
प्राकृतिक सम्पदा को अर्थ कहते हैं।
वह सब पदार्थ, समाजिक व्यवस्था जो मनुष्य के जीवन निर्वाह और समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिये चाहिये, वह अर्थ है।
अतः मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपने धर्म पालन हेतु अर्थ अर्जित करें। और अर्जित अर्थ को समाज की सेवा और उसके कल्याण में लगाये।
मनुष्य अपनी शिक्षा और कोशल के अनुरूप जो कार्य करता है, उससे उसको प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अर्थ की प्राप्ति होती है।
प्राकृतिक पदार्थ एवं इनसे निर्मित अन्य वस्तु प्रत्यक्ष अर्थ है। समाजिक व्यवस्था को चलाने के लिये धन अप्रत्यक्ष अर्थ है।
केवल धन या धन व्यवस्था अर्थ नहीं है।
अतः अर्थ अर्जित करने के लिये कार्य करना मनुष्य का दूसरा पुरुषार्थ है।
काम
काम का अर्थ है कामना।
मनुष्य जब कार्य करता है, तो उसको अर्थ की प्राप्ति होती है। मनुष्य का धर्म तो है कि वह प्राप्त अर्थ का उपयोग समाज की सेवा में लगाए। और स्वयं के लिए केवल जीवन निर्वाह मात्र के लिये करे। परन्तु यह मनुष्य में विकृति है कि, वह प्राप्त अर्थ का उपयोग केवल अपने भोग और संग्रह के लिये करता है।
साथ ही वह कामना करता है कि उसको स्वयं के भोग और संग्रह के लिये अधिक से अधिक अर्थ की प्राप्ति हो। वह केवल स्वयं के सुख, आराम, प्रमाद के लिये अर्थ की कामना करता है और उसके लिये कार्य करता है।
कामना, भोग, और संग्रह धर्म के विपरित, अधर्म है। अतः इसका त्याग होना चाहिए।
कामना का त्याग मनुष्य का तीसरा पुरुषार्थ है।
मोक्ष
मृत्यु के भय से मुक्ति। सुख-दुःख के चक्र से मुक्ति। अन्त:करण में स्थित विषमता और विकार से मुक्ति। इन सब से मुक्त होने पर जो रह जाता है, वह है परमात्मा का अनुभव।
मनुष्य जब कामना पूर्ति के लिये कार्य करता है तब वह अपने धर्म से विमुख हो जाता है। जिसके कारण वह सुख-दुःख के बन्धन में बंध जाता है।
अतः जब मनुष्य अर्थ का उपयोग कामना पूर्ति के लिये न करके धर्म पालन के लिये करता है तब वह सुख-दुःख के बन्धन से मुक्त हो जाता है।
मोक्ष प्राप्ति के लिये मनुष्य को तत्व ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता है। साथ ही आवश्यकता है निरन्तर परमात्मा का चिन्तन करने की। इसके लिये मनुष्य सांख्य योग, ध्यान योग और भक्ति योग साधना करता है।
मोक्ष प्राप्ति के लिये की जाने वाली योग साधना चोथा पुरुषार्थ है।
विवेक गोयल
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