अहिंसा परमॊ धर्मः
On 04 Apr 2024

अहिंसा परमॊ धर्मः

किसी प्रकार की हिंसा को न करना अहिंसा है। एक मनुष्य अन्य मनुष्य पर हिंसा तीन प्रकार से करता है।

  1. शारीरिक कष्ट देना अथवा वध कर देना।
  2. मानसिक कष्ट देना।
  3. भौतिक संसाधनों से वंचित रखना।

जिसके पास शारीरिक बल, बुद्धि अथवा आर्थिक बल अन्य से अधिक है, वह ही अन्य पर हिंसा कर सकता है।

धर्म क्या है?

अहिंसा मनुष्य का धर्म किस प्रकार है, इसको जानने के लिये पहले जानते है कि धर्म क्या है?

संक्षेप में, मनुष्य के अपने जीवन में जो कर्तव्य है, उन कर्तव्यों को मनुष्य का धर्म कहते है। मनुष्य का सृष्टि (पर्यावरण) के प्रति, देश के प्रति, समाज के प्रति, परिवार के प्रति, और स्वयं के प्रति जो कर्तव्य है, वह ही मनुष्य के धर्म है।

धर्म – Religion का हिन्दी अनुवाद नहीं है।

धर्म कोई आस्था का विषय नहीं है।

न ही यह कोई दार्शनिक विचार है।

धर्म पूर्ण रूप से वैदिक विज्ञान है।

वस्तु निर्माण करने के लिये मनुष्य जब कोई निर्माण इकाई लगाता है, तब उसको सुचारु रूप से चलाने के लिये कुछ नियम बनाता है। उस निर्माण इकाई में काम करने वाले व्यक्ति को उन नियमों का पालन करना पड़ता है। ऐसा तो नहीं है कि कोई भी व्यक्ति कुछ भी और कैसे भी कर सकता है?

उसी प्रकार सृष्टि भी एक इकाई के सामान माना जा सकता है, जिसमें अनेक प्रकार के घटक (यन्त्र, तन्त्र, पदार्थ आदि) है। अतः सौरमंडल, भूमण्डल, नक्षत्र, एवं अन्य पदार्थों से मिल कर सृष्टि बनी है। भूमण्डल मे भी वायु, अग्नि, जल, आकाश, व्रक्ष, पशु, पक्षी, एवं अनेक अन्य प्रकार के प्रदार्थ है।

यह सृष्टि स्वतः ही क्रियाशील है। सृष्टि के स्वतः ही क्रियाशील होने के लिये इसमें जितने भी घटक है, उन सब में एक निश्चित व्यवस्था (नियम) से क्रिया हो रही है। यह नियम घटक के गुण पर आधारित है।

इस प्रकार गुण के आधार पर बने नियम घटक का कर्तव्य अथवा धर्म कहा जाता है।

प्रत्येक घटक में होने वाली क्रिया अन्य घटक पर अपना प्रभाव डालती है और उस प्रभाव में अन्य घटक प्रतिक्रिया भी करते है। इस प्रकार प्रत्येक घटक में होने वाली ये क्रियाएँ – ‘क्रिया-प्रतिक्रिया’ के रूप में और एक-दूसरे के प्रभाव में स्वतः ही होती रहती है। इस क्रिया-प्रतिक्रिया में हर क्रिया का आरम्भ और अंत होता है।

भूमण्डल में जितने भी जड़ और चेतन प्राणी है, उन सब में क्रिया-प्रतिक्रिया के रूप में उनकी उत्त्पति और विनाश स्वतः ही होता रहता है। उत्त्पति और विनाश के बीच जो उपस्थिति है, उसको बनाये रखने के लिये आवश्यक सामग्री, भूमण्डल के अन्य घटक से मिलती रहती है।

इस प्रकार उत्त्पति-उपस्थिति-विनाश और क्रिया का आरम्भ-अंत, चक्र रूप में निरन्तर चलता रहता है।

सनातन वैदिक विज्ञान इस चक्र को यज्ञ कहता है। 

इस यज्ञ में प्रत्येक घटक अपनी क्रिया रूप आहुति देता है।

अन्य घटक के सामान मनुष्य भी एक घटक है, और उसको भी सृष्टि चक्र रूपी यज्ञ में कुछ अपनी क्रिया है। , निश्चित ही अन्य घटक के सामान मनुष्य के लिये भी, उसके गुण के अनुरूप कुछ नियम है, जिसके अन्तर्गत मनुष्य को कार्य करने होते है।

मनुष्य के गुण

मनुष्य को बुद्धि, कार्य करने की कुशलता और कार्य करने अथवा न करने का विवेक विशेष रूप से प्राप्त है। मनुष्य सृष्टि से प्राप्त पदार्थों से कुछ भी रचने में सक्षम है। मनुष्य इन गुणों का प्रयोग जीवन निर्वाह, जीवन सुरक्षा, सुविधा और सुख के लिये करता है। इस के विपरीत पृथ्वी के अन्य प्राणी, एक परिसीमा में रह कर ही निर्धारित कार्य कर सकते है, जो मुख्यता उनके जीवन निर्वाह के लिये ही पर्याप्त होते है।

मनुष्य का धर्म

मनुष्य के इन गुणों के अनुरूप मनुष्य के लिये कुछ कार्य निर्धारित हुए है, जिसका वर्णन श्रीमद् भगवद् गीता में हुआ है।

अध्याय ३ श्लोक १० में प्रजापति ब्रह्माजी मनुष्य को कहते है कि, हे मनुष्य! तुम लोग अपने कार्यों (कर्तव्य) द्वारा अपने को समृद्ध करो और सृष्टि चक्र रूपी यज्ञ में अपना योगदान दो। कर्तव्य-पालन के लिये जो भी उपयुक्त सामग्री आवश्यक होगी वह आपको इस सृष्टि से मिलती रहेगी।

यहाँ समृद्धि, अध्यात्म ज्ञान की, विज्ञान की है, कार्य कुशलता की है, गुणों के विकास की है।

अध्याय ३ श्लोक ११ में प्रजापति ब्रह्माजी कहते है कि, हे मनुष्य जब तुम भूमण्डल के संसाधन, सम्पदा का उपभोग करोगे तब उनका संरक्षण करना तुम्हारा कर्त्तव्य है। इस प्रकार भूमण्डल की सम्पदा का संरक्षण करने से तुम एक दूसरे का सहयोग करते हुए तुम परम् कल्याण को प्राप्त होंगे।

जब भूमण्डल की सम्पदा के संरक्षण का विषय आता है तब उसमें वायु, जल, आकाश, वनस्पति, समस्त प्राणी (पशु, पक्षी, एवं अन्य जिव जन्तु), पृथ्वी, पर्वत, नदी, समुंद्र एवं अन्य अनेक प्रकार के प्रदार्थ, सभी आ जाते है। मनुष्य स्वयं भी समस्त प्राणियों में आ जाता है। प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है की वह अन्य मनुष्य का संरक्षण करे।

अध्याय ३ श्लोक १२: इस श्लोक में ब्रह्माजी जी कहते है कि जो मनुष्य सृष्टि चक्र रूपी यज्ञ से प्राप्त हुई वस्तु का भोग केवल स्वयं के लिये करता है और प्राप्त सामग्री को अन्य अभाव ग्रस्त मनुष्य की सेवा में नहीं लगाता वह समाज और प्रकृति का चोर है।

इस प्रकार मनुष्य के तीन मूलभूत धर्म (कर्तव्य) है

  1. सृष्टि चक्र रूपी यज्ञ में अपना योगदान देना। अर्थात सृष्टि, समाज एवं स्वयं की समृद्धि के लिये कार्य करना।
  2. भूमण्डल की सम्पदा का संरक्षण करना।
  3. अपने पुरषार्थ से जो सामर्थ, सामग्री प्रकृति से प्राप्त हो उसको अन्यों के सेवा में लगा देना।

इन तीन मुख धर्म से ही मनुष्य के अन्य धर्म निर्धारित हुए है।

संरक्षण और सेवा रूपी धर्म पालन करने से स्वतः ही अहिंसा धर्म का पालन हो जाता है। और अगर मनुष्य हिंसा करेगा, तब स्वतः ही संरक्षण और सेवा का त्याग होगा, जो मनुष्य के अधर्म है।

सनातन वेद का पालन करने वाले अनुयायी के लिये निश्चित ही “अहिंसा परमॊ धर्मः” है।

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