सृष्टि का सृजन, कार्यरत रहना और विलीनता का जो एक मूल सिद्धान्त है, उस सिद्धान्त को धर्म कहा गया है।
यह धर्म (सिद्धान्त) सनातन है। सनातन, अर्थात जिसका कभी अंत नहीं है| जिसको कभी झुठलाया नहीं जा सकता, जो हर परिस्थिति, देश, काल, में सत्य हैं।
‘सनातनः‘– भूत काल में यह अनादि है (सदासे है) और भविष्ये में इसका कभी अन्त होने वाला नहीं है।
सृष्टि में जो कुछ भी प्रतिष्ठित है और सृष्टि में जो भी क्रिया घटित हो रहीं है, उन सब का आधार यह सनातन धर्म ही है और यह समस्त सृष्टि के लिये कल्याण कारक है।
सनातन धर्म (सिद्धान्त) यह कहता है कि – समस्त सृष्टि का आधार केवल और केवल परमात्मतत्व है। परमात्मतत्व वह सूक्ष्म से भी सूक्ष्म तत्व है, जो अखंड, अनन्त, अव्यय, निराकार, निगुर्ण, सर्वव्यापी, निश्चल, समरस, शाश्वत, एवम व्यापक है। यह अति सूक्ष्म तत्व (परमात्मतत्व) ही समस्त सृष्टि का ऊर्जा स्तोत्र है।
सृष्टि का कारण भी परमात्मतत्व है और कार्य भी परमात्मतत्व है। सृष्टि की उत्पत्ति भी स्वतः परमात्मतत्व से होती है; परमात्मतत्व में ही सृष्टि स्थित है; परमात्मतत्व से ही परिपूर्ण है और परमात्मतत्व में ही उसकी विलीनता है।
मनुष्य के पास जो इन्द्रियाँ, बुद्धि, विवेक है उसका आधार और कारण परमात्मतत्व है। मनुष्य जिन यंत्र को लेकर परमात्मतत्व को जानने का प्रयास करता है वह निरर्थक है। उसका कारण यह है कि यंत्र अपने आधार को कैसे जान पायगा? नहीं जान सकता।
सौरमंडल, भूमण्डल (भूमण्डल मे वायु, अग्नि, जल, वृक्ष, पशु, पक्षी, मनुष्य, और समस्त पदार्थ), और नक्षत्र को मिला कर सम्पूर्ण सृष्टि प्रतिष्ठित और गतिशील है। सृष्टि चक्र को गतिशील बनाये रखने के लिय स्वतः ही सौरमंडल, भूमण्डल, आकाश और नक्षत्र में अपनी-अपनी कार्य/क्रिया हो रही है।
सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ का वह गुण जिसके कारण उस पदार्थ का अस्तित्व सिद्ध होता है उस पदार्थ का धर्म (सिद्धान्त) कहलाता है। पदार्थ के उस गुण के कारण ही सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ में क्रिया हो रही है, और वे क्रिया ही सृष्टि चक्र के संतुलन को बनाय रखने में साहयक है। अतः हर ग्रह (सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी आदि) के अपने-अपने गुण है और उन गुण के आधार पर उनमें क्रिया हो रही है।
क्योकि सृष्टि चक्र के संतुलन को बनाय रखने के लिये सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ में जो क्रिया हो रही है, उसका होना आवयश्क है, इसलिये उस क्रिया का होना उस पदार्थ का कर्तव्य भी कहा गया है।
भूमण्डल में भी वायु, अग्नि, जल, आकाश, भूमि, वृक्ष, पशु, पक्षी, और अन्य पदार्थों का अपना-अपना गुण है, और उनमें उन गुणों के आधार पर क्रियाएँ हो रही है, जिनको उनका धर्म अथवा कर्तव्य कहा गया है।
इस सनातन धर्म से ही मनुष्य के लिये भी कार्य निर्धारित हुए है जिसको मनुष्य का कर्तव्य अथवा धर्म कहा गया है।
मनुष्य का:
उसे ही मनुष्य का धर्म कहा गया है।
जिस क्रम मे कर्तव्य कहे गये हैं उसी क्रम मे कर्तव्य की प्राथमिकता है। अतः स्वयं से पहले परिवार, परिवार से पहले समाज, समाज से पहले देश और देश से पहले प्रकृति के प्रति मनुष्य का कर्तव्य है।
मनुष्य जिससे भी अपना सम्बन्ध मानता है वह परिवार है।
मनुष्य का किसी भी प्रकार का कोई भी अधिकार स्वयं के लिये इस संसार से नही है।
मनुष्य का स्वयं (शरीर) के प्रति जो कर्तव्य है वह शरीर के केवल निर्वाह मात्र का और स्वस्थ रखने का है। मनुष्य का अधिक से अधिक भोग की वस्तु को प्राप्त करना और उसमें आसक्त रहना, मन की कामना पूर्ति करना, शरीर के प्रति कर्तव्य नही हैं। प्राय: मनुष्य भोग/ कामनाओं में इतना डूबा रहता है कि वह शरीर के स्वास्थ्य, मन की स्वच्छता और बुद्धि की स्थिरता का भी ध्यान नहीं करता।
अतः मनुष्य के सभी कार्य अन्यों के लिये है, स्वयं के लिये तो केवल निर्वाह मात्र का है।
मनुष्य दुवारा धर्म का पालन करने का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने शुद्ध दैवी स्वरूप के अनुरूप आचरण करे और उसका यह प्रयत्न होना चाहिये कि वह स्वस्वरूप की महत्ता बनाये रखे और पशुवत जीवन व्यतीत न करे। पशुवत जीवन है भोग व्रती का।
इस प्रकार मनुष्य का अलग-अलग परिस्थिति मे आचरण किस प्रकार का हो और कर्तव्य क्या हो, इस का ज्ञान मनुष्य को वेदों के द्वारा होता है। यह वेद स्वयं श्रुति रूप में सनातन धर्म (परमात्मतत्व) से ही निकले है, न की किसी अन्य मनुष्य का विचार है।
धर्म का अर्थ सृष्टि के संदर्भ में सिद्धान्त है; सृष्टि के पदार्थों के संदर्भ में पदार्थों का गुण है और मनुष्य के संदर्भ में, मनुष्य का कर्तव्य है।
इन सब धर्म को समावेश रूप में सनातन धर्म कहा गया है।
श्रीमद भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच का जो संवाद है वह मनुष्य समुदाय के लिये बहुत ही
कल्याणकारी है। गीता में मनुष्य जीवन का उद्देश्य, जीवन यापन कि कला, मनुष्य के कर्तव्य और सुख दुःख के
बन्धन से मुक्ति पाकर, किस प्रकार परमानन्द परमात्मा कि प्राप्ती की जा सकती है, इसका विस्तार से वर्णन
किया गया है।
श्रीमद भागवत गीता के प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक धृतराष्ट्र के उवाच से होता है और उनके वाक्य का प्रथम शब्द “धर्म” है। कारण की यह युद्ध को धर्म युद्ध कहा गया है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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